सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक कर्त्तव्य पर प्रश्नचिह्न - यूपीएससी, आईएएस, सिविल सेवा और राज्य पीसीएस परीक्षाओं के लिए समसामयिकी
सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक कर्त्तव्य पर प्रश्नचिह्न - यूपीएससी, आईएएस, सिविल सेवा और राज्य पीसीएस परीक्षाओं के लिए समसामयिकी
संदर्भ
- वर्तमान में बाकी देशों की तरह भारत भी COVID-19 के कारण उत्पन्न हुए स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है। इसमें प्रवासी मजदूरों को सबसे अधिक समस्या का सामना करना पड़ रहा रहा है क्योंकि उनके पास कोई काम नहीं है, आय का कोई स्रोत नहीं है, बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंच नहीं है, कोरोना से सुरक्षा हेतु कोई गुणवत्तायुक्त परीक्षण सुविधाएं नहीं हैं, कोई सुरक्षात्मक उपकरण नहीं है, और घर तक पहुंचने का कोई साधन नहीं है। कोविड-19 के कारण मजदूरों के मूलभूत अधिकार भी संकट में आ गए हैं। प्रशासनिक कार्यवाही भी इस संकट की घड़ी में इनकी मदद करने में नाकाफी रही है। ऐसे विकट समय में न्यायपालिका द्वारा स्थूल रूप धारण कर सब कुछ कार्यपालिका के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। न्यायपालिका द्वारा नियंत्रण एवं संतुलन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह न्यायपालिका का उत्तरदायित्व है कि वह नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे। पृष्ठभूमि
- सर्वोच्च न्यायालय इस देश के नागरिकों, विशेष रूप से गरीबी रेखा के निकट या नीचे रहने वाले लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा और सुरक्षा के लिए संवैधानिक रूप से निर्णायक भूमिका निभाता है।
- जब से कोरोना का प्रकोप भारत में आया, तब से सर्वाेच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जनहित याचिकाओं (पीआईएल) की भरमार हो गई है, जिसमें इस संकट से निपटने हेतु विभिन्न उपायों की माँग की जा रही है। COVID-19 महामारी के कारण देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा चार घंटे से कम समय के पूर्वनोटिस के साथ की गई थी। इससे देश में अभूतपूर्व मानवीय संकट पैदा हो गया। वे लोग, जिनके पास न तो घर था और न ही सुरक्षित रहने के लिए जगह थी वे सभी प्रवासी मजदूर बेरोजगार हो गये क्योंकि लॉकडाउन के कारण शहरी क्षेत्रें में काम बंद हो गये थे। इसके बाद स्थिति और बदतर तब हो गयी जब केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के शुरुआती समय में सभी ट्रेन व बसों को भी रद्द कर दिया था, ऐसे में इन प्रवासियों के पास पैदल ही अपने घर की ओर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। सुप्रीम कोर्ट की असफलता
- अलख आलोक श्रीवास्तव बनाम भारत संघ केस, प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा पर दायर की गयी जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने सॉलिसिटर जनरल के रिपोर्ट पर विचार किया। न्यायालय के समक्ष सॉलिसिटर जनरल का बयान था कि 31 मार्च तक, कोई भी प्रवासी व्यत्तिफ़ अपने घर, कस्बों या गांवों तक पहुंचने की कोशिश में सड़कों पर नहीं निकला था। शहरों में काम करने वाले मजदूरों का प्रवासन फर्जी खबरों (जैसे -लॉकडाउन 3 महीने से अधिक समय तक जारी रहेगी) द्वारा पैदा की गई अफवाह से उत्पन्न हुआ था। चूँकि उस समय तक देश में कोरोना केस भी न्यूनतम स्थिति में थे, इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 31 मार्च तक COVID-19 का मुकाबला करने के लिए भारत संघ द्वारा उठाए गए कदमों पर संतोष भी व्यत्तफ़ किया।
- विडम्बना यह थी कि भले ही उस समय COVID-19 मामलों की संख्या केवल कुछ सौ थी, लेकिन देश के लाखों गरीब व बेरोजगार प्रवासी श्रमिक अपने घर को वापस नहीं जा पाए और तंग क्वाटर में रहने को विवश हुए गरीब प्रवासीयों में संक्रमण का खतरा अधिक हो गया इसके अलावा, सरकार के बयान को भी स्पष्ट रूप से तथ्यों के विपरीत दखिाया गया।
- आधुनिक भारत में सबसे सख्त लॉकडाउन में, केंद्र ने कई निर्देश जारी किए, परन्तु इन दिशा-निर्देश को पूरा करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दिया गया। लेकिन प्रवासी मजदूरों का मुद्दा स्वाभाविक रूप से एक अंतर-राज्यीय मुद्दा है, और राज्यों को इससे आंतरिक रूप से और साथ ही अंतर-राज्य दोनों से निपटना पड़ा। इसके साथ मुद्दा यह भी है कि प्रवासी श्रमिकों की वापसी के लिए सुरक्षित परिवहन की गारंटी कौन देगा? इस मंदी में, कौन उन्हें अनुदान या भत्ता या उनके स्वास्थ्य की देखभाल करेगा? कौन भोजन तथा अन्य सभी जरूरतों की देखभाल करेगा? नौकरी के नुकसान की भरपाई कौन करेगा और उनकी नियमित जाँच कौन करेगा?
- सुप्रीम कोर्ट की विफलता, मई के प्रारंभ तक लाखों श्रमिकों के बड़े पैमाने पर प्रवासन के परिणाम में समाने आई। ये मजदूर पिछले छह सप्ताह के लिए लगभग अव्यवस्थित परिस्तिथियों से असंतुष्ट होने के कारण तंग आ गए थे।
- देश जब कोरोना संक्रमण 50,000 के आकड़े को भी पार कर गया था और बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक भी संक्रमित हुए थे, इस समय पर भी, सरकार ने प्रारम्भ में पैदल या ट्रकों द्वारा यात्र करने वाले प्रवासी मजदूरों को रोकने की कोशिश की थी, परन्तु बाद में, सरकार ने स्वयं ही बस और ट्रेनों (श्रमिक स्पेशल) द्वारा उन्हें घर वापस भेजने के लिए सहमत हो गई।
- इसी बीच 15 मई को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने प्रवासी मजदूरों सम्बन्धी उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें सभी जिला मजिस्ट्रेटों से तत्काल दिशा-निर्देश की मांग की गयी थी कि वे सड़कों पर चल रहे प्रवासी कामगारों की पहचान करें, उन्हें उचित भोजन और आश्रय की सुविधा प्रदान करें, इसके साथ ही उन्हें निःशुल्क घर भेजने की व्यवस्था की जाय। परन्तु इस जनहित याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया गया कि यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। इस संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश का बयान व्यथित कर देने वाला था जिसके अनुसार जब तक प्रवासी श्रमिकों को भोजन उपलब्ध कराया जाता है, तब तक उन्हें मजदूरी का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है। यह उसी सर्वाेच्च न्यायालय का निर्णय था जिसने संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या की थी, जिसमे कहा गया था कि संविधान प्रत्येक व्यत्तिफ़ को गरिमा-पूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। अनुचित अभिरूचि
- नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का,विशेष रूप से प्रवासी मजदूरों के अधिकारों के उल्लंघन का मौजूदा सबूतों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट याचिकाओं को स्वीकार करने से इनकार कर रहा है या उन याचिकाओं को स्थगित कर रहा है जो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने के लिए कह रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रवासी मजदूरों की स्थिति नीतिगत विषय है और हम इसमें न्यायिक हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। कोर्ट का कहना है कि सरकार वर्तमान स्थिति की सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश है। इन विचारों से ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों की रक्षा की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को छोड़ दिया, विशेष रूप से उन लोगों के लिए, जो सबसे कमजोर थे। परन्तु ऐसे कई निर्णय हैं जहां सर्वोच्च न्यायालय ने नीतिगत मामलों को अपने दायरे में ही माना है। यही नहीं इन मामलों में, न्यायालय ने नीतियां बनाईं है और राज्यों को उन्हें लागू करने के लिए भी कहा है जैसेः
- कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न पर दिशानिर्देश
- भोजन का अधिकार
- पर्यावरण संरक्षण की नीतियां।
जनहित याचिका
- जनहित याचिका (पीआईएल) एक विशिष्ट साधन है जिसे गरीबों, दलितों और कमजोर वर्ग के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति पीडि़त व्यक्ति की ओर से उचित दिशा-निर्देश प्राप्त कर सकता है। पीआईएल, वास्तव में, अदालत और सभी पक्षों के बीच एक सहयोगी प्रयास है ,जहां हर कोई समस्या के समाधान की मांग करने के लिए एक साथ आ सकता है।
उच्च न्यायालयों की भूमिका
- प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर, कुछ उच्च न्यायालयों द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जा रही है, भले ही सरकार द्वारा उन्हें इस आधार पर हतोत्साहित करने की कोशिश की जा रही हो, कि उच्चतम न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर रहा है तो उच्च न्यायालयों को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है।
- परन्तु इसके बावजूद चार उच्च न्यायालयों (कर्नाटक, मद्रास, आंध्र प्रदेश और गुजरात) ने प्रवासी मजदूरों के अधिकारों के बारे में सवाल पूछना शुरू कर दिया है। यह आपातकाल के दौरान उत्पन्न स्थिति की पुनरावृति है, जब उच्च न्यायालयों ने अधिकारों के अतिक्रमण के विरूद्ध साहसपूर्वक कदम उठाया था, लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा अंततः इसे खारिज कर दिया गया था।
- इसके अलावा मद्रास उच्च न्यायालय ने मीडिया के खिलाफ आपराधिक मानहानि के मामलों को यह कहकर खारिज कर दिया है, कि लोकतंत्र को इस तरह से नहीं दबाया जा सकता है।
- इसके विपरीत, सॉलिसिटर-जनरल के तर्कहीन दावे (जिसमें कहा गया था कि श्रमिकों का पलायन फर्जी समाचारों के कारण था), के लिए सुप्रीम कोर्ट ने माना कि मीडिया हाउसों को और जिम्मेदारी से रिपोर्ट करने की सलाह दी जानी चाहिए। आगे की राह
- न्यायालय के पास अनुच्छेद 142 के तहत भारत के संविधान द्वारा प्रदत शत्तिफ़ है, जिसके तहत पूर्ण न्याय हेतु न्यायालय कोई भी उपाय कर सकती है। परन्तु सुप्रीम कोर्ट द्वारा लाचारी का प्रदर्शन कर, न्यायलय के आदर्श वाक्य फ्यतो धर्मस्ततो जयाय् के साथ न्याय नहीं करता है।
- ऐसे समय में, उच्च न्यायालय तर्कसंगतता, साहस और दयालुता का भाव लिए समाने तो आते हैं परन्तु अब यह एक ऐसा समय है, जब सर्वाेच्च न्यायालय को सरकार की बातों से सहमत होने के बजाय, विपत्ति की स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र और कानून का अस्तित्व, विशेष रूप से COVID-19 महामारी के समय, संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने वाले न्यायालय पर निर्भर है।
- प्रवासी मजदूरों का संकट आज भी जारी है, रेलवे स्टेशनों और विभिन्न राज्य की सीमाओं पर लाखों लोग फंसे हुए हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप करके यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पर्याप्त परिवहन, भोजन और आश्रय की तुरंत व्यवस्था प्रदान किए जाए।
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