भारत में कार्बन संबंधी असमानता

भारत में कार्बन संबंधी असमानता



 हाल ही में जारी विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 (World Inequality Report 2022) में बताया गया है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों के समूह में भारत और ब्राज़ील में असमानता ‘चरम’ पर है. इस सूची में चीन की हालत थोड़ी सुधरी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन में ‘ऊंचे स्तर’ की विषमता मौजूद है. बहरहाल, असमानता में ‘असाधारण’ बढ़ोतरी दर्ज करने वाले देशों में अमेरिका और रूस के साथ-साथ भारत का भी स्थान है. इस रिपोर्ट में देश की सबसे अमीर 10 फ़ीसदी आबादी की दौलत का आर्थिक रूप से सबसे निचले पायदान पर रह रही 50 फ़ीसदी आबादी से अनुपात निकाला गया है. दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों पर नज़र डालें तो भारत (दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र) में ये अनुपात 22 है जबकि थाईलैंड (फ़ौजी तानाशाही शासन वाला देश) में इससे कम यानी 17 है. कोविड-19 महामारी के चलते 2020 में सबसे निचले पायदान की 50 फ़ीसदी आबादी की आमदनी में गिरावट दर्ज की गई. वैश्विक स्तर पर दर्ज की गई इस गिरावट के लिए दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई देश, ख़ासतौर से भारत ज़िम्मेदार है. इन आंकड़ों से भारत को बाहर करके देखने पर 2020 में बाक़ी दुनिया की निचली 50 फ़ीसदी आबादी की आमदनी में हल्की बढ़ोतरी पाई गई.

कार्बन असमानता

क़ुदरती तौर पर आय और दौलत की ये असमानता उपभोग में अंतर के चलते कार्बन विषमता में बदल जाती है. भारत में राष्ट्रीय औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन तक़रीबन 2.2 टन कार्बन डाइऑक्साइड (tCO2) दर्ज किया गया. 2019 में भारत की मध्यम आय वाली 40 फ़ीसदी आबादी ने क़रीब 2 टन CO2 प्रति व्यक्ति, आमदनी के हिसाब से निचले पायदान की 50 फ़ीसदी आबादी ने तक़रीबन 1 टन COप्रति व्यक्ति और शीर्ष की सबसे दौलतमंद 10 प्रतिशत जनसंख्या ने लगभग 8.8 टन CO2 प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जित किया. कार्बन उत्सर्जन को लेकर इस तरह का रुझान सिर्फ़ भारत तक ही सीमित नहीं है. 

2021 में वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन की औसतन मात्रा प्रति व्यक्ति 6.5 टन CO2 रही. 2019 में आमदनी के हिसाब से नीचे की 50 फ़ीसदी आबादी ने सिर्फ़ 1.6 टन CO2 प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जित किया. ये कुल कार्बन उत्सर्जन का 12 प्रतिशत है. वहीं मध्यम आय वाली 40 प्रतिशत जनसंख्या के उत्सर्जन का स्तर 6.6 tCO2 प्रति व्यक्ति रहा. विश्व के कुल उत्सर्जन का ये लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा है. शीर्ष की 10 प्रतिशत रईस आबादी ने प्रति व्यक्ति 31 टन CO2 उत्सर्जित किया. ये दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड के कुल उत्सर्जन का 47.6 प्रतिशत है. वहीं दुनिया की सबसे दौलतमंद 1 प्रतिशत जनसंख्या (यानी लगभग 7.71 करोड़ लोग) ने प्रति व्यक्ति 110 tCO2 कार्बन उत्सर्जित किया. ये आंकड़ा दुनिया में कुल उत्सर्जन का 16.8 प्रतिशत है. समृद्धि के हिसाब से दुनिया की सबसे अमीर 0.1 प्रतिशत (मतलब सिर्फ़ 77 लाख लोग) आबादी के उत्सर्जन का स्तर प्रति व्यक्ति 467 टन CO2 था. वहीं अमीरी के पैमाने पर दुनिया की सबसे ऊपर की 0.01 प्रतिशत आबादी (यानी सिर्फ़ 7 लाख 70 हज़ार लोग) के उत्सर्जन का स्तर भारी-भरकम रहा. 2019 में इस आबादी का उत्सर्जन प्रति व्यक्ति 2531 टन COदर्ज किया गया था.

कार्बन विषमता: देशों के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर

जलवायु से जुड़ी वार्ताओं के बहुपक्षीय मंचों पर भारत निरंतर देशों के बीच समानता के सिद्धांत की वक़ालत करता रहा है. हाल ही में ग्लासगो में हुए COP26 सम्मेलन के ठीक पहले भारत सरकार ने क्लाइमेट इक्विटी मॉनिटर (CEM) की शुरुआत का स्वागत किया था. इस ऑनलाइन डैशबोर्ड का मकसद जलवायु के मोर्चे पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न्यायिक तौर पर की जाने वाली कार्रवाइयों का आकलन करना हैCEM को दुनिया भर में उत्सर्जन, ऊर्जा और संसाधनों के उपभोग से जुड़ी विषमताओं पर निगरानी रखने का दायित्व भी सौंपा गया है. CEM ने पश्चिमी स्रोतों से आने वाले संदेशों की काट करने को अपना लक्ष्य बताया है. दरअसल पश्चिमी स्रोत उन गणनाओं या कार्य प्रणालियों (methodologies) पर आधारित होते हैं जिनमें समानता, न्याय, विशिष्टता (differentiation) और ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों पर सिर्फ़ सतही तौर पर ग़ौर फ़रमाया जाता है. पश्चिम के स्रोत केवल इन्हीं पद्धतियों को बढ़ावा देते रहे हैं. इस तरह पश्चिमी स्रोतों की पद्धतियों में UNFCCC (यूनाइटेड नेशंस फ़्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज) के तमाम दिशानिर्देशक सिद्धांतों पर समुचित रूप से ध्यान नहीं दिया जाता. CEM के मुताबिक जिन मामलों में जलवायु से जुड़े विमर्शों में न्याय पर ज़ोर होने का दावा किया जाता है उनमें भी ग्लोबल नॉर्थ (पश्चिमी दुनिया के समृद्ध देश) के नज़रियों को ही अहमियत दी जाती है. ये मुट्ठी भर दौलतमंद देश ख़ुद को बाक़ी दुनिया का अगुवा साबित करना चाहते हैं. दरअसल वो ये जताना चाहते हैं कि वो बाक़ी दुनिया की अगुवाई करते हैं. CEM का मकसद इसी असमानता को दूर करना है. वो एक नए विमर्श को आगे बढ़ाना चाहता है जिसमें ग्लोबल साउथ (दुनिया के निर्धन और विकासशील देश) आगे बढ़कर ग्लोबल नॉर्थ समेत पूरी दुनिया की निगरानी करता है. बहुपक्षीय जलवायु वार्ताओं में व्यक्तियों की बजाए राष्ट्र एक इकाई के तौर पर शामिल होते हैं. लिहाज़ा ‘देशों के बीच’ की विषमता को चुनौती देने की भारत की रणनीति पूरी तरह से जायज़ है. हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि ‘देश के भीतर’ की असमानताओं को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है.

विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के मुताबिक 1990 में 63 फ़ीसदी वैश्विक कार्बन विषमता ‘देशों के बीच’ की असमानताओं के वजह से थी. जबकि 2019 में 63 प्रतिशत वैश्विक कार्बन असमानता की वजह ‘देशों के भीतर मौजूद’ विषमताएं रही हैं. भारत बहुपक्षीय मंचों पर देशों के बीच मौजूद कार्बन असमानताओं को कम करने की लड़ाई लड़ रहा है. ऐसे में देश के भीतर मौजूद कार्बन विषमताओं का निपटारा करने से भारत की इस जद्दोजहद को मज़बूती मिलेगी.

अमीरी के हिसाब से भारत की शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के उत्सर्जन का स्तर विश्व के औसत उत्सर्जन स्तर से ज़्यादा है. पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भारत को अपने उत्सर्जन स्तर में कटौती लानी है. निश्चित रूप से इन कटौतियों का ज्यादातर बोझ इसी 10 प्रतिशत दौलतमंद आबादी पर डाला जाना चाहिए. 2019 के स्तरों से तुलना करें तो हम पाते हैं कि भारत में उत्सर्जन का स्तर 2030 तक 70 फ़ीसदी बढ़कर 1.5 टन CO2 प्रति व्यक्ति तक पहुंच सकता है. आमदनी के हिसाब से सबसे नीचे की 50 फ़ीसदी आबादी के उत्सर्जन का स्तर 281 प्रतिशत बढ़कर 2.7 टन CO2 प्रति व्यक्ति तक पहुंच सकता है. वहीं मध्यम आय वाली 40 प्रतिशत आबादी के उत्सर्जन का स्तर 83 प्रतिशत बढ़कर 1.7 टन CO2 प्रति व्यक्ति तक बढ़ सकता है. हालांकि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए शीर्ष 10 प्रतिशत दौलतमंद आबादी के उत्सर्जन स्तर में 58 फ़ीसदी की गिरावट लाकर उसे 5.1 टन CO2 के स्तर पर लाना ज़रूरी है.

WIR 2022 में सबसे नीचे की 50 फ़ीसदी और मध्यम आय वाली 40 प्रतिशत आबादी को लक्ष्य में रखते हुए जलवायु नीतियों की सिफ़ारिश की गई है. इनमें नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्ति में सार्वजनिक निवेश और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर परिवर्तनकारी तौर पर आगे बढ़ने से प्रभावित होने वाले वर्गों की हिफ़ाज़त करने जैसे उपाय शामिल हैं. इनके अलावा शून्य कार्बन उत्सर्जन वाले सामाजिक रिहाइशों के निर्माण और जीवाश्म ईंधनों से पैदा होने वाली ऊर्जा की क़ीमतों में बढ़ोतरी के लिए कैश ट्रांसफ़र की भी सिफ़ारिश की गई है. इस रिपोर्ट में शीर्ष की 10 फ़ीसदी रईस आबादी के लिए अन्य उपायों के अलावा प्रदूषण टॉप-अप के साथ वेल्थ या कॉरपोरेट टैक्स लगाए जाने का भी सुझाव दिया गया है.

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कार्बन विषमता से निपटने के लिए वैश्विक कार्बन प्रोत्साहन (GCI) का सुझाव दिया है. वैश्विक कार्बन असमानताओं से पार पाने का ये भी एक भरोसेमंद विकल्प है. GCI के तहत औसत वैश्विक उत्सर्जन (तक़रीबन 5 टन CO2 प्रति व्यक्ति) से ज़्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाले हर देश द्वारा सालाना एक निश्चित रकम के भुगतान का प्रस्ताव दिया गया है. इस रकम को तय करने का एक फ़ॉर्मूला भी सुझाया गया है. इसके लिए प्रति व्यक्ति अतिरिक्त उत्सर्जन को वहां की आबादी और तय की गई GCI के साथ गुणा कर हासिल रकम को वैश्विक कार्बन प्रोत्साहन कोष में जमा करने की बात कही गई है. वैश्विक उत्सर्जन औसत से कम कार्बन उत्सर्जित करने वाले देशों को इसी अनुपात में रकम अदा की जाएगी. भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 5 टन CO2 की तयशुदा मानक सीमा से काफ़ी नीचे है. ऐसे में भारत को कुछ भी भुगतान करने की ज़रूरत नहीं होगी, उल्टे भारत को दुनिया के दौलतमंद देशों से रकम हासिल होगी. अगर वैश्विक स्तर से ऊपर के उत्सर्जन की शुरुआती GCI को 10 अमेरिकी डॉलर प्रति टन CO2 तय किया जाए तो कार्बन असमानताओं से निपटने के लिए भारी-भरकम रकम जुटाई जा सकती है.

GCI जैसी तरक़ीब को भारत में ‘देश के भीतर’ मौजूद कार्बन विषमताओं पर भी लागू किया जा सकता है. अगर ऐसा होता है तो 138 करोड़ की आबादी के सबसे दौलतमंद 10 फ़ीसदी हिस्से को सालाना कुल मिलाकर 5.2 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम अदा करनी होगी. सरकार द्वारा जलवायु परिवर्तन से जुड़े मद में ख़र्च की जाने वाली सालाना रकम का ये तक़रीबन एक तिहाई हिस्सा है. दिसंबर 2021 में EU ETS (European union emission trading system) में कार्बन की प्रचलित क़ीमत 80 यूरो प्रति टन CO2 के आसपास थी. इस क़ीमत की तुलना में 10 अमेरिकी डॉलर प्रति टन CO2 की GCI काफ़ी कम है. हालांकि एक नई शुरुआत के तौर पर ये बिल्कुल सही लगती है. बहरहाल इस कड़ी में अफ़सरशाही के सामने एक बड़ी चुनौती सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाली शीर्ष 10 फ़ीसदी आबादी की पहचान करने को लेकर होगी. हालांकि ये काम नामुमकिन नहीं है.

क्या ये असमानता उचित है?

भारत की मौजूदा जलवायु नीतियों के तहत ख़ासतौर से ऊर्जा या टेक्नोलॉजी के स्वच्छ स्रोतों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसके लिए निजी क्षेत्र को बड़े वित्तीय और दूसरे प्रोत्साहन मुहैया कराए जा रहे हैं. इनमें एक तरफ़ बाहरी प्रतिस्पर्धा से बचाव (जैसे आयात शुल्कों और कर छूटों के ज़रिए) और दूसरी तरफ़ सुनिश्चित बाज़ार (स्वच्छ ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाने के लिए तमाम तरह की शर्तों के ज़रिए) उपलब्ध कराए जा रहे हैं. इन नीतियों का लाभ उठाने वालों में प्रमुख रूप से निजी इकाइयों के प्रमोटर्स और शेयरहोल्डर्स शामिल हैं. सबसे ज़्यादा उत्सर्जन करने वाली शीर्ष 10 फ़ीसदी आबादी में भी यही लोग शुमार हैं. अनुभवों और पर्यवेक्षणों पर आधारित अध्ययनों से पता चलता है कि स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन को प्रोत्साहित करने जैसी अल्पकालिक जलवायु कार्रवाइयों से ग़रीबों पर कुछ न कुछ बोझ ज़रूर पड़ता है. अध्ययन में नेस्टेड इनइक्वॉलिटिज़ क्लाइमेट इकॉनोमी (NICE) मॉडल के इस्तेमाल से पता चलता है कि कार्बन टैक्स के समान प्रति व्यक्ति रिफ़ंड (या GCI जैसे समान उपायों) से प्राप्त राजस्व से कल्याणकारी उपायों के लिए तत्काल और भारी-भरकम मुनाफ़े हासिल हो सकते हैं. ज़ाहिर है इनसे विषमताओं को कम करने और ग़रीब उन्मूलन में काफ़ी मदद मिल सकती है.

भारत में पूंजी और राज्यसत्ता के बीच के तालमेल से ही सत्ता का प्रदर्शन होता है. ऐसे में कार्बन पिरामिड के सबसे निचले हिस्से का फ़ायदा सुनिश्चित करने वाली नीतियों की पैरोकारी किए जाने की संभावना काफ़ी कम है. जैसा कि विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 की प्रस्तावना में नोबेल पुरस्कार विजेताओं एस्थर डफ़लो और अभिजीत बनर्जी ने रेखांकित किया है- निजी क्षेत्र की अगुवाई में होने वाली आर्थिक वृद्धि में व्यक्तिगत स्तर पर बेतहाशा दौलत जुटाने की क़वायद का ख़ूब गुणगान किया जाता है. दरअसल इस कड़ी में असमानता को एक समस्या के तौर पर देखा ही नहीं जाता. भारत में सीमांत आयकर की ऊपरी दरें 1970 के सर्वोच्च स्तर से काफ़ी नीचे आ गई हैं. आज भारत में आयकर की दरें जापान, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ़्रांस और यहां तक कि अमेरिका जैसे संपन्न देशों की सीमांत आयकर दरों के शीर्ष स्तर से नीचे हैं. इससे पूंजी के प्रति राज्यसत्ता का लगाव उभरकर सामने आ जाता है.

इस विषय पर एक शैक्षणिक अध्ययन का निष्कर्ष इस पूरे संदर्भ में प्रासंगिक हो जाता है. इसमें ये पता चला था कि हक़ीक़त में इंसान (किशोर आयु और छोटे बच्चे भी) ऐसी ही दुनिया में रहना पसंद करते हैं, जहां असमानता मौजूद या वजूद में हो. ये बात सामान्य ज्ञान और तजुर्बे के परे मालूम होती है, लेकिन अध्ययन से कुछ इसी तरह की बातें सामने आईं हैं. दरअसल पता ये चला कि जब लोग ख़ुद को ऐसे वातावरण में पाते हैं जहां हर कोई बराबर हो तो कई लोग नाख़ुश रहने लगते हैं. ऐसे लोगों को लगता है कि जो ज़्यादा कड़ी मेहनत करते हैं उन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिलता जबकि आलसी और कामचोर लोगों को ज़रूरत से ज़्यादा इनाम मिल जाता है. ये बात असमानता को ‘उचित’ बना देती है. इसके तहत शीर्ष की 10 फ़ीसदी आबादी को कड़ी मेहनत करने वाले और उनसे नीचे के लोगों को आलसी और कामचोर करार दिया जाता है. बहरहाल महामारी की तरह ही जलवायु परिवर्तन की समस्या देशों की सरहदों या मानव-निर्मित बाधाओं या वर्गीकरणों (labels) तक सीमित नहीं हैं. अगर निचली 90 फ़ीसदी आबादी जलवायु परिवर्तन के बोझ तले तबाह हो रही हो तो शीर्ष की 10 फ़ीसदी आबादी का साथ देने वाली नीतियां उनका बचाव करने में शायद बेअसर ही साबित होंगी.

स्रोत:- ORF and विश्व असमानता रिपोर्ट 2022

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