मानव भूगोल: प्राकृतिक, क्षेत्र, विचारधाराए एवं उपागम
मानव भूगोल: प्राकृतिक, क्षेत्र, विचारधाराए एवं उपागम
किसी भी विषय को परिभाषित करने की सदैव एक कठिन समस्या रही है । समय बीतने के साथ-साथ ज्ञान में वृद्धि एवं संस्कृति के विकास के फल स्वरुप विषय की परिभाषा भी परिवर्तित होती रहती है । इन्हीं कर्म से मानव भूगोल की कोई भी परिभाषा सर्वत्र मान्य नहीं है । यधपि भूगोल की अनेक परिभाषाएं दी गई है , परंतु हार्टशोर्न कि वह परिभाषा जो उन्होंने अपनी महान कृति भूगोल की प्रकृति संबंधित परिप्रेक्ष्य (1959) (perspective on the nature of geography) मे दी है, अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने लिखा है कि "भूगोल का संबंध पृथ्वी के धरातल के विषमता युक्त स्वरूप का यथार्थ, व्यवस्थित और विवेकपूर्ण ढंग से वर्णन एवं व्याख्या करने से है।"
हालांकि भूगोल एक समाकलन आत्मक विज्ञान है , परंतु इसका स्वरूप विभाजन पारक है । भौगोलिक अध्ययन के आंतरिक तर्क ने इस विषय को दो भागों में विभाजित कर दिया है: (1) भौतिक भूगोल एवं (2) मानवीय रचना का भूगोल जिसे मानव भूगोल कहते हैं।
दूसरे शब्दों में भूगोल विषय का वह भाग मानव भूगोल कहलाता है जिसमें मानवीय क्रियो के स्थानिक विभेदीकरण और संगठन के साथ-साथ भौतिक पर्यावरण के मानवीय प्रयोग का अध्ययन किया जाता है।
मानव भूगोल बनाम मानव पारिस्थितिकी
मानव पारिस्थितिकी की संकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम अमेरिकी भूगोल नेताओं द्वारा हुआ जो सामाजिक डार्विनवाद में विश्वास करने लगे थे । ह ब्रज ने अमेरिकी भूगोलवादियो की समिति में 1923 में अपने अध्यक्ष भाषण में या घोषित किया था कि मानव भूगोल, मानव परिस्थितिकी है। इस विचारधारा का अनुसरण करने वालों ने यह विचार स्थापित करने का प्रयत्न किया कि मानव और उसके पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक तत्वों की अंतर क्रियो में पारस्परिक संबंध है। उनका यह भी विचार था कि अस्तित्व के लिए संघर्ष आवश्यक होता है , परिणाम जो जीवित रहते हैं , वें अपने प्रतिस्पर्धियों की अपेक्षा पर्यावरण के साथ अच्छी तरह समायोजन करते हैं । अपेक्षाकृत उत्कृष्ट अनुकूलन में वृद्धि और निकृष्ट अनुकूलन में निष्कासन होता है । मानव पारिस्थितिकी का केंद्रीय विचार यह है कि पौधों और पशुओं की तरह मानव को भी अपने भौतिक पर्यावरण में संघर्ष करना पड़ता है और संघर्ष की इस प्रक्रिया में निर्बलों का निष्कासन हो जाता है।मानव पारिस्थितिकी के समर्थकों का यह विश्वास था कि परिस्थितिकीय सिद्धांत , अर्थात भोजन श्रृंखला जल प्रतिरूप आदि सभी प्रकार के जीव समूह हो , पौधों , पशुओं एवं मानव पर लागू होते हैं । मानव भूगोल मानव स्थिति की है इस विचारधारा को लेमारकीन के कार्यो ने आगे और पुष्ट किया, जिन्होंने इस बात पर बोल दिया कि प्रत्येक जीव सचेतन रूप में अपने परिवेश के साथ समायोजन कर सकते हैं और उपार्जित विशेषताओं को अपनी संतान को हस्तांतरित करते हैं । रेट जेल की राज्य संबंधित जैविक संकल्पना, डेविस की भू आकृति विज्ञान, कुमारी सैंपल, हंटिंग्टन एवं टेलर का पर्यावरणीय निश्चयवाद harbtarsan का प्रादेशिक भूगोल और फ्ल्यूर का मानवशास्त्रीय मानव भूगोल आदि सभी धारणाएं न्यूनाधिक मात्रा में यह प्रमाणित करती है कि मानव भूगोल मानव पारिस्थितिक है।
मानव भूगोल को मानव पारिस्थितिकी के रूप में परिभाषित करने वाले उपागम की अनेक बिंदुओं पर आलोचना हुई है । इस परिभाषा ने मानव को पौधों और पशुओं के समक्ष मान लिया है जिसमें मानव को भी जीवित रहने के लिए अपने पर्यावरण में तथा कथित संघर्ष करना पड़ता है । परंतु मानव उपकरणों का निर्माता , उनका उपयोग करता और संस्कृति का रचनाकार प्राणी भी है मानव अपने ज्ञान , वैज्ञानिक प्रगति एवं नव प्रवर्तनों के माध्यम से अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने प्राकृतिक आवास और पारिस्थितिकी तंत्र में अत्यधिक परिवर्तन करता रहता है बार भोजन के लिए वह अपने पर्यावरण पर ही निर्भर नहीं रहता है । सुख एवं भोजन की अप्रिता के समय वह दूर के प्रदेशों से अनाज एवं अन्य उपयोगी वस्तुएं आयात कर मानव जाति को बचा सकता है । इसके अतिरिक्त मानव अपनी शक्ति , निपुणता एवं प्रौद्योगिकी के आधार पर चावल , गना , रबर , मसाले जैसी उष्णकटिबंधीय फसलों को कृत्रिम दशाएं उत्पन्न कर शीतोष्ण एवं धातु प्रदेशों में भी उत्पन्न कर सकता है । अतः मानव जीव अपने प्राकृतिक आवास एवं पर्यावरण मंत्र द्वारा नियंत्रित नहीं होता है । इसके विपरीत , मानव स्वयं अपने प्राकृतिक पर्यावरण में रूपांतरण करने वाला एक महान अभिकर्ता एजेंट है । अरस्तु, मानव पारिस्थितिकी के सिद्धांत मानव समझो पर उसे सीमा तक लागू नहीं होते जैसे हुए पौधों एवं पशुओं पर लागू होते हैं । भूगोल ना तो मानव स्थिति की हो सकती है और नहीं होनी चाहिए।
Comments
Post a Comment