भारतीय संविधान का निर्माण, संविधान सभा की पृष्ठभूमि,संविधान सभा की रचना एवं प्रकृति, संविधान सभा का प्रतिनिधिक स्वरूप

भारतीय संविधान का निर्माण

स्वतंत्रता प्राप्ति 15 अगस्त 1947 के तुरंत बाद भारत मैं राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र बहू वर्गीय था ।आंदोलन के नेताओं ने आमतौर प्रतिनिधि मूलक सरकार के उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों । आवश्यक मताधिकार। निर्वाचित संस्थाओं, कानून के शासन, स्वतंत्र न्यायपालिका और व्यक्तियों के समूह के लिए अधिकारों की वकालत की थी। इसके साथ-साथ विशेषता 1930 के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने स्वतंत्रता के सामाजिक पक्ष पर भी विचार करना आरंभ कर दिया था। इसके अतिरिक्त निर्धनता उन्मूलन, शिक्षा और लोगों को दूर करने, अमीर और गरीब के बीच की खान को काटने, शहरों व गांव के मध्य दूरी समाप्त करने और संस्था मूलक कल्याणकारी राष्ट्र निर्माण पर जोर दिया गया ।


परंपरागत रूप से संविधान वाद की अवधारणा को सीमित सरकार और कार्यात्मक राजनीतिक संस्थाओं की व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । परंतु जब तीसरी दुनिया के देशों को स्वतंत्रता मिली , तब तक संविधान वाद की अवधारणा सरकार व नागरिकों और सरकार के विभिन्न अंगों में परस्पर संबंधों की व्याख्या से विकसित होकर राजनीतिक व्यवस्था के लिए सामाजिक व आर्थिक लक्षण की व्याख्या के रूप में बदल चुकी थी । भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं महात्मा गांधी , जवाहरलाल नेहरू हुआ सुभाष चंद्र बोस की तैयारी में यह समझते हुए राजनीतिक स्वतंत्रता के भारत के नागरिकों के सामाजिक , आर्थिक व सांस्कृतिक पूर्ण रोजगार का माध्यम है , राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप में परिवर्तन लाने की कोशिश की । इसके साथ ही अमेरिका हवाई पश्चिमी यूरोप के देशों के लोकतंत्र और समाजवाद की भर्ती लोकप्रियता ने भी भारतीय नेताओं को आकृष्ट किया । इसी संदर्भ में स्वतंत्रता आंदोलन के लक्षण व आदर्शों और जनता की आकांक्षाओं को समाहित करने हेतु संविधान निर्माण हेतु संवैधानिक सभा का गठन हुआ । भारत का संविधान जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ , देश के आकार एवं विविधता को देखते हुए विश्व का सबसे बड़ा संविधान है । संविधान निर्माण के समय ,9 केवल भारत बड़ा एवं विविध था अगर अभी तो अत्यंत विभाजित था और इसीलिए इसे इस प्रकार तैयार किया गया है जिस देश एकजुट रह सके।

संविधान सभा की पृष्ठभूमि

जब किसी प्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक राष्ट्र द्वारा संविधान की रचना का कार्य उसकी जनता के प्रतिनिधि निकाय द्वारा किया जाता है , तो संविधान पर विचार करने तथा उसे स्वीकार करने के लिए जनता द्वारा चुने गए इस प्रकार के निकाय को संविधान सभा कहा जाता है । पूर्ण प्रभु सट्टा संपन्न राष्ट्रवाद में जहां कहीं भी लिखित संविधान है , उनका निर्माण जनता ने प्रयास संविधान सभाओं के माध्यम से किया है । संविधान सभा की प्रेरणा का स्रोत सातवीं और 18वीं शताब्दी की लोकतांत्रिक क्रांतियां है । इन क्रांतियां ने इस विचार को जन्म दिया कि शासन के मूलभूत कानून का निर्माण नागरिकों की एक विशिष्ट प्रतिनिधि सभा द्वारा किया जाना चाहिए।
भारत में संविधान सभा की परिकल्पना सदैव राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के साथ जुड़ी रही । भारत की संविधान सभा का निश्चित उल्लेख , भले ही इन शब्दों में ना किया गया हो किंतु भारत शासन अधिनियम 1919 के लागू होने के पश्चात 1922 में महात्मा गांधी नहीं से तथ्य का उल्लेख किया था ।
जनवरी 1925 में दिल्ली में हुए सर्व दलीय सम्मेलन के समक्ष कॉमनवेल्थ आफ इंडिया बिल को प्रस्तुत किया गया जिसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी । उल्लेखनीय है कि भारत के लिए एक संवैधानिक प्रणाली की रूपरेखा प्रस्तुत करने का यह प्रथम प्रमुख प्रयास था ।
19 में 1928 को मुंबई में आयोजित सम्मेलन में भारत के संविधान के सिद्धांत निर्धारित करने के लिए मोतीलाल नेहरू के सभापति में एक समिति गठित की गई । 10 अगस्त 1928 को प्रस्तुत की गई समिति की रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट के नाम से भी जाना जाता है उल्लेखनीय है कि संसद के प्रति उत्तरदाई सरकार न्यायपालिका द्वारा परिवर्तनीय मौलिक अधिकार , अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकार सहित मोटे तौर पर जिन संसदीय व्यवस्था की संकल्पना 1928 की नेहरू रिपोर्ट में व्यक्त की गई थी । इसे लगभग जिओ का क्यों 21 वर्ष बाद 20 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत स्वाधीन भारत के संविधान में समाविष्ट कर लिया गया ।
जून 1934 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने घोषणा की की श्वेत पत्र का एकमात्र विकल्प यह है कि वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित संविधान सभा द्वारा एक संविधान तैयार किया जाए । यह पहला अवसर था जब संविधान सभा के लिए औपचारिक रूप से एक निश्चित मांग प्रस्तुत की गई । 1940 के अगस्त प्रस्ताव में ब्रिटिश सरकार ने संविधान सभा की मांग को पहली बार आधिकारिक रूप से स्वीकार किया , वाले ही स्वीकृति अप्रत्यक्ष तथा महत्वपूर्ण शर्तों के साथ थी । प 1942 का क्रिप्स मिशन पूर्णत असफल सिद्ध हुआ , फिर भी उसमें संविधान सभा बनाने की बात को स्वीकार कर लिया गया था ।
अंकित कैबिनेट मिशन 1946 द्वारा संविधान निर्माण के लिए एक बुनियादी ढांचे का प्रारूप प्रस्तुत किया गया । कैबिनेट मिशन ने संविधान निर्माण निकाय द्वारा अपना ही जाने वाली प्रक्रिया को कुछ विस्तार पूर्वक निर्धारित किया जो इस प्रकार है:
1. प्रत्येक प्रांत को और प्रत्येक देशी रियासत या रियासतों के समूह को अपनी जनसंख्या के अनुपात में कुल स्थान आमंत्रित किए गए । स्थूल रूप से 10 लाख के लिए एक स्थान का अनुपात निश्चित किया गया । इसके परिणाम स्वरुप प्रति को 292 सदस्य निर्वाचित करने थे और देशी रियासतों को कम से कम 93 स्थान दिए गए।
2. प्रत्येक प्रांत के सदस्यों को जनसंख्या के अनुपात के आधार पर तीन प्रमुख सदस्यों में बांटा गया । यह समुदाय थे मुस्लिम , सिख और साधारण।
3. प्रांतीय विधानसभा में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों को एकल संक्रमणीय मत से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करना था ।
4. देसी रियासतों के प्रतिनिधियों के चयन की पद्धति परामर्श से तय की जानी थी ।
3 जून 1947 की योजना के अंतर्गत विभाजन के परिणाम स्वरुप पाकिस्तान के लिए एक पृथक संविधान सभा गठित की गई । बंगाल , पंजाब , सिंह , पश्चिम उत्तर सीमा प्रांत , बलूचिस्तान और असम के सिलहट जिले के प्रतिनिधि भारत की संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे । पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल के प्रति में नए निर्वाचन किए गए । परिणाम स्वरुप जब संविधान सभा 31 अक्टूबर 1947 को पुणे सम्मिलित हुई तो सदन की सदस्यता घटकर 299 हो गई । इसमें से 284 सदस्य 26 नवंबर 1949 को वास्तव में उपस्थित है और उन्होंने अंतिम रूप से संविधान सभा पर अपने हस्ताक्षर किए।

संविधान सभा की रचना एवं प्रकृति

भारतीय संविधान का निर्माण अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित संवैधानिक सभा ने किया । संविधान सभा ने 9 दिसंबर 1946 को कार्य प्रारंभ किया । संविधान सभा का निर्माण देश की जनता की आदर्श और राष्ट्रीय आंदोलन की मांग की भारतीय संविधान का निर्माण ब्रिटिश संसद नहीं , बल्कि भारत की जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करेंगे की पराकाष्ठा थी ।
संविधान सभा सदस्य संख्या की दृष्टि से एक काफी बड़ी सभा थी । कैबिनेट मिशन ने उसके सदस्यों की कोई अधिकतम संख्या निर्धारित नहीं की थी । कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव था कि हर 10 लाख की आबादी के लिए एक प्रतिनिधि होना चाहिए । चुनाव के पश्चात अपने निर्बल स्थिति देखकर मुस्लिम लीग ने संविधान सभा के बहिष्कार का निश्चय किया तथा 9 दिसंबर 1946 को आहत संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने भाग नहीं लिया । लीग ने अब पाकिस्तान के लिए बिल्कुल पृथक संविधान सभा की मांग करनी प्रारंभ कर दी । कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार द्वारा लीग को अपने हाथ धर्मिता त्यागने हेतु किए गए सभी पर्याप्त निरर्थक सिद्ध हुए ।
पाकिस्तान के निर्माण और मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा के बहिष्कार के कारण सदस्य संख्या गिर गई । उसमें प्रति के केवल 235 और देशी रियासतों के 73 प्रतिनिधि रह गए । संविधान के अंतिम मूल मसौदे पर उन्हें 308 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए थे ।
जहां तक प्रति का प्रश्न है , उसके प्रतिनिधियों का चुनाव जुलाई 1946 में प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा हुआ । देसी रियासतों के आधे प्रतिनिधि राजाओं द्वारा मनोनीत किए गए और आधे जनता द्वारा चुने गए । इस प्रकार या स्पष्ट है कि भारत के वयस्क स्त्री पुरुषों ने प्रत्यक्ष रूप से सदस्यों को नहीं चुना संविधान सभा में अल्पसंख्यक वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधि प्राप्त था । इस प्रकार विभाजन के बाद जबकि देसी रियासतों के प्रतिनिधित्व के अतिरिक्त संविधान सभा का गठन हो चुका था , अल्पसंख्यकों को 1935 में से 88 अर्थात 36 प्रतिशत प्रतिनिधित्व प्राप्त था अनुसूचित जातियों के भी 33 सदस्य थे ।

संविधान सभा के सर्वाधिक प्रभावशाली सदस्य थे डॉ राजेंद्र प्रसाद मौलाना आजाद जवाहरलाल नेहरू वल्लभभाई पटेल डॉक्टर अंबेडकर गोविंद बल्लभ पंत ग अयंगर कृष्णस्वामी अय्यर केएम मुंशी आचार्य कृपालु तथा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ।

संविधान सभा के गठन और उसके द्वारा अपना कार्य प्रारंभ किए जाने के तुरंत बाद संविधान सभा की स्थिति के संबंध में एक विवाद प्रश्न हो गया ।:20 ने संविधान सभा की बैठक को ही चुनौती दे दी । संविधान सभा के एक सदस्य श्री जयकार ने भी  विचार व्यक्त किया कि संविधान सभा एक संप्रभु संस्था नहीं है और उसकी शक्तियां मूलभूत सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं दोनों ही दृष्टियों से मर्यादित हैं ।
उनके विचार का आधार यह था कि संविधान सभा केबिनेट योजना के अधीन अस्तित्व में आई और यह वृद्धि संसद की सत्ता के ही अधीन है । वह कैबिनेट मिशन योजना में वर्णित संविधान की मूल रूप रेखा में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है । सभा का आवाहन ब्रिटिश सम्राट के अधिकार पर गवर्नर जनरल द्वारा किया गया था और यह अपेक्षित था कि संविधान सभा को संविधान बनाएगी उसे ब्रिटिश संसद के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाएगा , लेकिन संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने इन प्रतिबंधों को और स्वीकार करते हुए संविधान सभा की संप्रभुता सत्ता पर बोल दिया । इस अवसर पर बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था आजादी और ताकत के मिलते ही हमारी जिम्मेदारियां भी बढ़ गई है । संविधान सभा इन जिम्मेदारियां को निभैगी । संविधान सभा एक पूर्ण प्रभुत्व संबंध संस्था है , वह देश के स्वतंत्र नागरिकों का प्रतिनिधित्व करती है।
 इस विचार के अनुसार ही संविधान सभा ने अपने पूर्ण प्रभुता को प्रदर्शित भी किया
प्रथम यह प्रस्ताव पारित किया गया कि ब्रिटिश सरकार या अन्य किसी भी सत्ता के आदेश से सभा का विघटन नहीं होगा । संविधान सभा को इस समय भंग किया जाएगा जबकि सभा स्वयं दो तिहाई बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे ।
द्वितीय संविधान सभा ने सभा के संचालन की पूर्ण शक्ति अपने निर्वाचित सभापति को दे दी

संविधान सभा का प्रतिनिधिक स्वरूप

आलोचकों का कहना है कि संविधान सभा में जनसाधारण के प्रतिनिधित्व नहीं थे यानी उसके सदस्यों का चुनाव देश के सभी वयस्क नागरिकों ने नहीं किया था।
 यह सत्य है कि संविधान सभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुने गए थे , परंतु इसका अर्थ या नहीं है कि हम इस प्रतिनिधिक संस्था न माने। संविधान सभा में लगभग सभी संप्रदायों के व्यक्ति थे भारत

Comments

BPSC 70 वीं का NOTIFICATION हुआ जारी :- 2024

जनजातीय समाज (Tribal Society):- भारत में जनजातीय समुदाय : संख्या एवं वितरण और जनजातीय समुदायों की विशेषताएँ

General Studies- II: Governance, Constitution, Polity, Social Justice and International relations.

वुड्स डिस्पैच :- व्यवसाय के लिए शिक्षा चार्ल्स वुड का नीतिपत्र (वुड्स डिस्पैच) (ईस्ट इंडिया कंपनी)

Followers

Contact Form

Name

Email *

Message *